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    Hindi Upanyas : Aadiwasi Sanghrsh Aur Paristhitikiya Sankat (1990-2016)
    Gupta, Munni
    बीज शब्द : पारिस्थितिकी, आदिवासी, जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता, विस्थापन, विकास मॉडल प्रस्तुत शोध प्रबंध "हिंदी उपन्यास : आदिवासी संघर्ष और पारिस्थितिकीय संकट (1990-2016)" के केंद्र में मनुष्य की पूंजीवादी मानसिकता के कारण प्रकृति पर विजय पाने की आकांक्षा और उससे उत्पन्न पारिस्थितिकीय संकट है, जिसका आलोचनात्मक अध्ययन आदिवासी समुदाय के विशेष संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। 'पारिस्थितिकी' अथवा 'इकोलॉजी' को 'विज्ञान और समाज' को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में जाना जाता है जिसकी परिधि में इस पृथ्वी का समस्त जैविक-अजैविक संसार शामिल है। अन्य घटकों की भांति ही मनुष्य पर भी प्रकृति के सारे नियम लागू होते हैं। लेकिन तथाकथित विकास की धुन में मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ अपने सह-अस्तित्व व साहचर्य के सम्बन्धों को नकारने का परिणाम ही आज वैश्विक स्तर पर 'पारिस्थितिकीय संकट' के रुप में मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ होने के 'अहं' पर चोट करता नजर आता है। इस संकट का सबसे ज्यादा शिकार है आदिवासी समुदाय, क्योंकि वही प्रकृति के सबसे निकट है, और जिसके संघर्षो का इतिहास बहुत पुराना है। आदिवासी समुदाय के जीवन में प्रकृति रची-बसी है। इसकी सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी परिस्थितियाँ प्रकृति पर ही निर्भर करती हैं। आदिवासी दर्शन वास्तव में 'पारिस्थितिकीय' दर्शन है जहां 'मनुष्य' प्रजाति सर्वश्रेष्ठ नहीं है। यहां जीव-जंतु, पेड़-पौधे, नदियां-पहाड़ सब समान हैं। ऐसे में प्रकृति का विनाश आदिवासी 'अस्तित्व' पर ही सवाल खड़े करता है । हिंदी आदिवासी उपन्यासों में इसी सवाल को उठाते हए पारिस्थितिकीय संकट के संदर्भ में आदिवासी संघर्षों को चित्रित किया गया है। इन उपन्यासों में, विकास के नाम पर जल, जंगल और जमीन के दोहन ने किस प्रकार पारिस्थितिक तंत्रों (स्थलीय एवं जलीय) को नुकसान पहुँचाकर प्राकृतिक असंतुलन को जन्म दिया है, किस प्रकार मनुष्य की प्रकृति से निरंतर होते छेड़छाड़ ने जलवायु-परिवर्तन, जैव-विविधता का नाश, जल संकट, मरूस्थलीकरण जैसी वैश्विक चुनौतियों को खड़ा किया है तथा किस प्रकार इन सभी परिस्थितियों ने मिलकर आदिवासियों के लिए स्वास्थ्य, जीविका विस्थापन एवं अन्ततः आदिवासी जनसंख्या हास् जैसी भयंकर समस्याओं को जन्म दिया है, की जांच-पड़ताल की गई है। इसके साथ ही विकास की अंधी दौड़ में शामिल दुनिया के तमाम देशों को देखते हुये विकास के लिये आदिवासी मॉडल का सुझाव भी दिया गया है, जो प्रकृति-हितैषी है। महुआ माँझी कहती हैं कि आदिवासी समुदाय प्रकृति और मनुष्य के बीच अन्तर्संबंध को महत्व देता है, आदिवासी को प्रकृति की सूक्ष्म समझ होती है, अतः विश्व को यदि भविष्य में होने वाले प्राकृतिक प्रकोपों से बचाना है तो हमें आदिवासी प्रकृति-दर्शन को समझते हुये प्रकृति और पारिस्थितिकीय हितैषी विकास मॉडल का विकल्प खोजना ही होगा।
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    Sahitya Hindi Cinema aur Dalit Chetna: ek Adhyayan
    Choubay, Rishi Bhushan
    सिनेमा में दलित चेतना की अभिव्यक्ति अधिक सशक्त रूप में 1990 के बाद दिखाई देती है । मुख्यधारा के सिनेमा में वंचित तबके का दखल और उसकी भूमिका पर बात करें तो प्रभावी अभिव्यक्तियाँ कम भले हों, पर मिलती अवश्य हैं । सिनेमा लोक का प्रतिनिधित्व करता है और हिन्दी सिनेमा में भी अनेक स्थानों पर सभी वर्गों को व्यापक प्रतिनिधित्व मिलने लगा है । हिंदी सिनेमा में आजादी के पहले हाशिये के समाज को लेकर जो फिल्म बनी उसमें ‘अछूत कन्या’ और ‘अछूत’ प्रमुख हैं । इन फिल्मों के बाद आंदोलित करने वाले विषयों पर काफी समय तक कोई फिल्में नहीं बनी । इसके बाद 40 के दशक में अधिकांश फ़िल्में देशभक्ति, चरित्र आख्यान और मनोरंजन पर ही केन्द्रित रही । एक लम्बे अन्तराल के बाद विमल राय ने ‘सुजाता’(1959) फिल्म बनाई । कुछ प्रमुख दलित फिल्मों को देखें तो- ‘परख’(1960), ‘अंकुर’(1974), ‘मंथन’(1976), ‘दामुल’(1985), ‘भीम गर्जना’(1990) आदि फिल्मों का निर्माण हुआ । इनमें से ज्यादातर फ़िल्में दलितों की व्यथा को ही व्यक्त करती हैं, जिसमें दलितों को असहाय निरक्षर, शोषित, पीड़ित, लाचार दिखाया गया है । लेकिन अब स्थिति कुछ बदल चुकी है । आठवें –नौवें दशक में प्रकाश झा, गोबिंद निहलानी, सईं परांजपे, जब्बर पटेल, कुंदन शाह जैसे फ़िल्मकार सामने आते हैं । इन फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों में दलित जीवन को बड़ी ही संजीदगी के साथ परदें पर दिखाया । प्रकाश झा ने ‘दामुल’ और ‘आरक्षण’ जैसी फ़िल्में बनाई जिनमे दलित जीवन सशक्त रूप में मुखर हुआ है । बीसवीं शताब्दी की कुछ बेहतरीन फिल्मों की बात की जाए तो जिसमें बहिष्कृत, शोषित, उपेक्षित हाशिये की समाज को गहन संवेदना और कलात्मकता के साथ चित्रित किया है, उनमें ‘सद्गति’, ‘तर्पण’, ‘बवंडर’, ‘शुद्रा- द राइजिंग’ प्रमुख हैं । इन फिल्मों में दलित समस्या को प्रमुखता से जगह दी गई है । जाति के कारण उत्पीड़ित स्त्री की महागाथा के रूप में फूलन देवी की जिन्दगी पर शेखर कपूर ने ‘बैंडिट क्वीन’ फिल्म बनाई । यह एक क्लासिक फिल्म मानी जाती है । गाँव की जाति प्रधान व्यवस्था स्त्री की उत्पीड़न को मूकदर्शक बनकर देखती है और एक दिन स्त्री को हथियार उठाने के लिए विवश कर देती है । इक्कीसवी शताब्दी में सिने तकनीक में क्रान्तिकारी बदलाव तो हुआ ही साथ ही फिल्म निर्माण के क्षेत्र में वित्तीय व्यवस्था के कई स्त्रोत खुल गए, जिससे नए फिल्मकारों को सामने आने का मौका मिला । अब कम बजट में भी बेहतरीन फ़िल्में बनती है और उन विषयों पर भी जिन पर पहले सोचा भी नहीं जा सकता था । जैसे मराठी में ‘फेंड्री’(2013) और ‘सैराट’(2016) हिंदी में विधु विनोद चोपडा की ‘एकलव्य’(2007), ‘चौरंगा’(2014), नीरज घेयवान की ‘मसान’(2015), आर्टिकल 15(2019) आदि अनेक फ़िल्में हैं, जो जातिगत भेदभाव और ऊँच-नीच के सामाजिक संघर्ष को पूरी कलात्मकता के साथ दिखाता है ।
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    Hindi Katha Sahitya Mein Lgbtq Jan: Vividh Aayaam
    Pandey, Ved Raman
    शोध-सार नब्बे के दशक के बाद हाशिए के विमर्शों की चर्चा जोर-शोर से होने लगी। इसमें दलित-विमर्श, आदिवासी-विमर्श, पर्यावरण विमर्श के साथ ही एलजीबीटीक्यू (LGBTQ) या क्वीयर विमर्श/सिद्धांत भी हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। क्वीयर सिद्धांत उत्तर-संरचनावादी सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिसका उद्भव 1990 के दशक में क्वीयर अध्ययन तथा स्त्री अध्ययन के क्षेत्र में होता है। ‘समलैंगिक’ शब्द का उद्भव 19वीं शताब्दी में यूरोप में तब हुआ जब इस पर व्यापकता से विचार-विमर्श किया जाने लगा। इस बात के प्रमाण बड़ी संख्या में मिलते हैं कि समाज में स्त्री-पुरुष के बीच प्रजननमूलक यौन-क्रिया के अलावा विभिन्न प्रकार के यौन- संबंध हमेशा से ही बनते रहे हैं। होमोफोबिया (समलैंगिकता के प्रति घृणा) पश्चिमी देन है, जो न सिर्फ भारत में अपितु विकासशील तीसरी दुनिया में उपनिवेशवाद के माध्यम से प्रसारित हुई। होमोफोबिया औपनिवेशिक शासन की विरासत थी। जिसका प्रभाव स्वतंत्रता के पश्चात भी जीवित रहा और आज भी बहुत हद तक व्याप्त है। हालांकि विषमलैंगिक पुरुष वर्चस्व वाली सामाजिक संरचना के बावजूद समलैंगिक विमर्श की चर्चा दबे जुबानों में होती रही जिसका व्यापक स्वरूप बाद में क्वीयर विमर्श के रूप में उभरकर सामने आया। कहानियों, उपन्यासों में कहीं यौन छेड़छाड़ के साथ तो कही रोमांटिक मित्रता के रूप में क्वीयर संबंधों पर लिखा जाता रहा। यौनिकता पर चर्चा करना हमारे समाज में आसान नहीं रहा हैं, यही कारण है कि क्वीयर संबंधों पर केंद्रित फिल्में जब भी बनीं वह या तो अधिकांशतः अनुमान पर आधारित रही है या आधे-अधूरे ज्ञान में सिमटती नजर आती है। कुछ फिल्में ऐसी भी रही है जिन्होंने क्वीयर संबंधों व उनकी जटिलताओं के बारे में समझ बनाने के साथ ही समाज की भ्रमित धारणाओं को तोड़ने का भी प्रयास किया है।
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    Bhasha aur Hindi Aalochana: Antarsambandh
    Choubay, Rishi Bhushan
    ‘भाषा और हिन्दी आलोचना : अंतर्संबंध’ शीर्षक शोध-प्रबंध में हिन्दी आलोचना में भाषा-संबंधी चिंतन के सूत्रों की खोज की गई है तथा हिन्दी आलोचना की अपनी भाषिक संरचना का भी अध्ययन किया गया है। हिन्दी आलोचना की विधिवत शुरुआत भारतेंदु युग से मानें तो इसका इतिहास डेढ़ सौ वर्षों से कुछ अधिक का ठहरता है । इस समयावधि में हिन्दी साहित्य वाङ्मय में कई आलोचक हुए हैं और हैं। उन सबका अध्ययन एक शोध-प्रबंध में सम्भव नहीं अतः अध्ययन की सुविधा के लिए शोध-कार्य को हिन्दी के चार प्रमुख आलोचकों रामचंद्र शुक्ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा तथा नामवर सिंह की आलोचना-कृतियों पर केंद्रित रखा गया है। आधुनिक हिन्दी आलोचना में भाषा-संबंधी चिंतन की स्थिति क्या है, आलोचकों ने साहित्य के सम्पूर्ण मूल्यांकन में उसके भाषिक पक्ष को कितना महत्व दिया है तथा भाषा-विश्लेषण के क्या उपकरण हिन्दी आलोचना ने अपनाये व विकसित किए हैं, इन प्रश्नों पर यह शोध-कार्य केंद्रित है । भाषा का वैचारिकी और चिंतन-प्रक्रिया से गहरा संबंध है । आलोचना विचारप्रधान साहित्यिक कर्म है और भाषा विचार को अभिव्यक्त करने से पहले विचार को आकार देने का काम करती है, अतः भाषा से आलोचना का संबंध केवल माध्यम और मूल्यांकन की कसौटी का इकहरा संबंध नहीं है । आलोचक की अपनी भाषा रचना और रचना को सम्भव करने वाली स्थितियों को परखने की उसकी दृष्टि को नियंत्रित करती है । इस शोध-कार्य के द्वारा यह निष्कर्ष सामने आया है कि हिंदी आलोचना में भाषा के महत्वपूर्ण को उस हद तक महत्व देने की परम्परा है जितने से रचना की सामाजिकता और कलात्मकता का विश्लेषण बाधित नहीं होता बल्कि सही दिशा में प्रशस्त होता है ।
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    Kashmir Kendrit Hindi Upnyason Ka Aalochnatmak Adhyayan (1980 2014)
    Majumdar, Tanuja
    कश्मीर केन्द्रित हिंदी उपन्यासों का आलोचनात्मक अध्ययन (1980-2014)’ शोधकार्य में सन् 1980 से सन् 2014 के बीच प्रकाशित चन्द्रकान्ता के उपन्यास ‘ऐलान गली जिंदा है’, ‘यहाँ वितस्ता बहती है’, ‘कथा सतीसर’, क्षमा कौल के उपन्यास ‘दर्दपुर’, संजना कौल के उपन्यास ‘पाषाण युग’, पद्मा सचदेव के उपन्यास ‘नौशीन’, मीरा कांत के उपन्यास ‘एक कोई था कहीं नहीं-सा’, मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास ‘शिगाफ़’, मधु कांकरिया के उपन्यास ‘सूखते चिनार’, जयश्री राय के उपन्यास ‘इक़बाल’ और मनमोहन सहगल के उपन्यास ‘नरमेध’ के माध्यम से कश्मीरी जीवन और समस्याओं को समझने का प्रयास किया गया है। कश्मीर केन्द्रित हिंदी उपन्यास कश्मीर के इतिहास, राजनीति, साझी सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत, हिंसा, आतंक, कश्मीरियों के आपसी संबंध, उसमें होनेवाला बदलाव, अस्मिता संबंधी प्रश्नों, कश्मीरी स्त्रियों की स्थिति और विस्थापन की त्रासदी को अपनी कथावस्तु में समेटे हुए हैं। उपन्यास केवल हिंसा-आतंक या राजनैतिक निर्णयों से उत्पन्न समस्यायों को ही नहीं दिखाते बल्कि आम कश्मीरी जीवन की जद्दोजहद, उसकी विसंगतियों और रूढ़ियों को भी सामने लाते हैं। उपन्यासों में एक ओर जहाँ भविष्य के प्रति चिंता हैं तो सब बेहतर होने की उम्मीद भी है। यह उपन्यास कश्मीर-समस्या और कारणों का विश्लेष्ण करने के साथ संभावित समाधान भी बताते हैं। उपन्यासों में कश्मीरी-समाज की संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपरा, लोक गीत, लोक कथाओं और लोक-जीवन की प्रस्तुति द्वारा स्थानीयता को बनाए रखने का प्रयास भी किया गया है। उपन्यासों में व्यक्ति मन और जीवन की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए नवीन शिल्पगत प्रयोग भी देखने मिलते हैं, जैसे ‘फेसबुक चैट’, ‘ब्लॉग’, मैसेज’ आदि। दरअसल इन उपन्यासों में कश्मीरी जीवन को सम्पूर्णता में प्रस्तुत किया गया है जिसके तहत यह उपन्यास उन कश्मीरी जनों की आवाज़ बनते हैं जो हिंसा नहीं अमन चाहता है, युद्ध नहीं रोजगार चाहता है। वह एक ऐसा वर्तमान और भविष्य चाहता है जहाँ उसे और उसकी आगामी पीढ़ी को मौत का भय न हो, अपनी मातृभूमि से विस्थापित होने का दंश न सहना पड़े। आम जीवन की जटिलता, अंतर्द्वंद और पीड़ा को अभिव्यक्त करते इन उपन्यासों में कश्मीर की राजनीति के बरक्स जनसामान्य के जीवन को सामने लाने का प्रयास किया गया है।
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    Krishna Sobti Tatha Indira Goswami Ke Upanyason Mein Stree Vimarsh
    Majumdar, Tanuja
    प्रस्तुत शोध प्रबंध ‘कृष्णा सोबती तथा इंदिरा गोस्वामी के उपन्यासों में स्त्री विमर्श’ में हिन्दी-असमिया लेखिकाओं (कृष्णा सोबती तथा इंदिरा गोस्वामी) के उपन्यासों में मुखरित स्त्री विमर्श को अध्ययन के केंद्र में रखा गया है। स्त्री विमर्श, स्त्री चेतना के प्रसार का आख्यान है जिसमें स्त्रियों के लिए एक समान राजनैतिक, शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक अधिकारों की बात की जाती है। स्त्रीविमर्श किसी भी लिंग विशेष के वर्चस्ववाद का विरोध करने के साथ ही लिंगों की परस्पर समानता का आह्वान करता है। स्त्री विमर्श के साथ ही स्त्री लेखन के माध्यम से स्त्री चेतना का व्यापक स्तर पर प्रसार संभव हुआ। साठवें दशक से भारतीय साहित्य में महिला रचनाकारों ने क्रमशः अपनी सुदृढ़ जगह बनाई जिसमें हिन्दी साहित्यकार कृष्णा सोबती तथा असमिया साहित्यकार इंदिरा गोस्वामी महत्वपूर्ण नाम हैं। दोनों ही साहित्यकार स्त्रियों के संघर्ष, उसकी वेदना, अंतर्द्वंद्व को लिपिबद्ध करने के साथ ही समाज के पीड़ित अन्य वर्ग को भी अपने लेखन के केंद्र में रखती हैं। विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक मुद्दों को समाहित करता कृष्णा सोबती तथा इंदिरा गोस्वामी का लेखन युग जीवन और मानव जीवन के सभी पक्षों को समेटे हुए है। दोनों साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के द्वारा एक बहुभाषीय राष्ट्र की दो भाषाओं हिंदी तथा असमिया के माध्यम से दो भिन्न भू-भागों पश्चिमोत्तर और पूर्वोत्तर के समाज में स्त्री की स्थिति, उसके संघर्ष का चित्रण करते हुए स्त्री चेतना के स्वर को मुखर किया है। कृष्णा सोबती के स्त्री पात्र संयुक्त परिवार की जटिल संरचना में स्त्री के समान अधिकार के लिए संघर्ष करते हैं वहीं इंदिरा गोस्वामी की नायिकाएं स्त्री द्वेषी धार्मिक कुरीतियों के विरुद्ध अपना प्रतिरोध दर्ज करती हैं। कृष्णा सोबती तथा इंदिरा गोस्वामी इस तथ्य के प्रति सजग हैं कि समाज तथा परिवार की जटिल संरचना में स्त्री और पुरुष को मात्र शोषित और शोषक की तरह विभाजित नहीं किया जा सकता। अतः दोनों साहित्यकार स्त्री और पुरुष को एक-दूसरे के प्रतिपक्ष में खड़ा करने के बजाय परिस्थितियों और घटनाओं को निष्पक्ष दृष्टि से देखते हुए स्त्री अस्मिता के संकट को प्रस्तुत करती हैं तथा इसके साथ ही स्त्री सशक्तिकरण का पथ भी विस्तृत करती हैं। कृष्णा सोबती तथा इंदिरा गोस्वामी के उपन्यासों में शोषण के मूल को समझने के लिए जाति, वर्ग तथा लिंग आधारित शोषण का सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। दोनों साहित्यकारों के उपन्यासों में चित्रित स्त्री जीवन के आधार पर भारत के दो भिन्न भू-भागों पंजाब तथा असम में सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनैतिक आधार पर स्त्री के संघर्ष को समझा जा सकता है।
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    Narendra Kohli Rachit Todo Kara Todo Jiwan Darshan Aur Uski Samkalin Prasangikta
    Gangopadhyay, Anindya
    शोध-प्रबंध का सार जीवनीपरक उपन्यास साहित्य की एक विधा है। यह शोध हिंदी के उपन्यासकार नरेंद्र कोहली के द्वारा स्वामी विवेकानंद के जीवन पर छः खंडों में लिखित तोड़ो कारा तोड़ो नामक जीवनीपरक उपन्यास पर किया गया है। शोध का शीर्षक है “नरेंद्र कोहली रचित तोड़ो कारा तोड़ो : जीवन दर्शन और उसकी समकालीन प्रासंगिकता”। इस शोध-प्रबंध में हिंदी जीवनीपरक उपन्यास की परम्परा के विषय में चर्चा की गई है। जीवनीपरक उपन्यासों के क्रम को रचनाकारों के जन्म के आधार पर रखा गया है। उपन्यास के स्वरूप को ऐतिहासिक और आध्यात्मिक दो रूपों में बाँटा गया है। जब कोई जीवनीपरक उपन्यास किसी आध्यात्मिक व्यक्ति के जीवन को आधार बनाकर लिखा जाता है तब उसे आध्यात्मिक जीवनीपरक उपन्यास कहा जाता है। जैसे डॉक्टर कृष्णबिहारी मिश्र का ठाकुर श्री रामकृष्ण के जीवन पर आधारित ‘कल्पतरु की उत्सव लीला’ एक आध्यात्मिक जीवनीपरक उपन्यास है। वैसे ही जब किसी ऐतिहासिक पात्र के जीवन को आधार बनाकर कोई उपन्यास लिखा जाता है तब उसे ऐतिहासिक जीवनीपरक उपन्यास कहा जाता है। जैसे गिरिराज किशोर द्वारा लिखित गाँधीजी के जीवन पर आधारित ‘पहला गिरमिटिया’। आध्यात्मिक पुरुष जिस प्रकार से ईश्वर के स्वरूप का चिंतन करता है उपन्यासों में ईश्वर का वही स्वरूप उभरकर आता है। अतः एक ओर जहाँ ‘कल्पतरु की उत्सव लीला’ उपन्यास में ईश्वर का रूप माँ का है क्योंकि उपन्यास के पात्र ने माँ के रूप में ईश्वर का साक्षात्कार किया था जबकि ‘खंजन नयन’ में ईश्वर सखा के रूप हैं। नरेंद्र कोहली के उपन्यासों का परिचय देते हुए यह बताया गया है कि कोहलीजी के उपन्यासों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है पौराणिक और आध्यात्मिक प्रसंग तथा विविध प्रसंग। पौराणिक और आध्यात्मिक प्रसंग के अंतर्गत लेखक के उन उपन्यासों के विषय में चर्चा की गई है जिन्हें उन्होंने रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों को आधार बनाकर लिखा है। इसके अंतर्गत बड़े और छोटे दोनों को मिलाकर 19 उपन्यासों का मूल्यांकन किया गया है तथा विविध प्रसंग के अंतर्गत उन उपन्यासों का मूल्यांकन किया गया है जिन्हें उन्होंने विविध आधुनिक विषयों को आधार बनाकर लिखा है। इसके अंतर्गत पाँच उपन्यासों के विषय में चर्चा की गई है। भारतीय अध्यात्म दर्शन परम्परा का परिचय देते हुए भारतीय अध्यात्म दर्शन की अवधारणा एवं स्वरूप के अंतर्गत विविध भारतीय दर्शन जैसे बौद्ध दर्शन, जैन-दर्शन आदि का मूल्यांकन किया गया है। लेखक नरेंद्र कोहली के दार्शनिक विचार को स्पष्ट किया गया है। भारतीय दर्शन परम्परा में विवेकानंद का चिंतन अद्वैतवाद है। तोड़ो कारा उपन्यास में निहित स्वामी विवेकानंद की आध्यात्मिकता एवं साधनात्मकता पर विचार किया गया है। इसके समकालीन परिप्रेक्ष्य में यह बताया गया है कि आज के ज़माने में लोग बहुत दिखावा करते हैं कि वे बड़े भक्त हैं, साधु हैं परंतु वास्तविकता कुछ और ही है। इसमें यह बताया गया है कि अंग्रेज़ों के ज़माने में भारत के लोग अंग्रेज़ी के कितने अधिक दीवाने थे। आज भी यही स्थिति बनी हुई है। स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्वंतरण पर चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि स्वामी विवेकानंद के विविध व्यक्तित्व का विकास किस प्रकार हुआ। जीवन दर्शन,समाज और संस्कृति के अंतर्गत बताया गया है कि भारतीय चिंतन में दर्शन केवल ज्ञान के प्रति अनुराग ही नहीं है बल्कि मानव जीवन को समग्रता से देखना भी है। जीवनीपरक उपन्यासों में कई प्रकार की शैलियों का प्रयोग किया जाता है जैसे वर्णात्मक शैली, संवादतमक शैली आदि। तोड़ो कारा तोड़ो उपन्यास के मूल भाव के विषय में चर्चा करते हुए उसके शिल्प पर भी प्रकाश डाला गया है। अंत में तोड़ो कारा तोड़ो उपन्यास की समकालीन प्रासंगिकता का व्यक्ति निर्माण, समाज निर्माण एवं राष्ट्र निर्माण के परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किया गया है तथा इनके पूर्व एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य पर भी प्रकाश डाला गया है। शोध करते हुए जो नई उपलब्धियाँ उभरकर आईं उनका भी उल्लेख किया गया है।
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    Adivasi Jivan Kendrit Hindi Upanyason ka Alochnatmak Adhyayan
    Hansda, Mary
    आदिवासी साहित्य लेखन दो-तीन दशकों से नहीं, बल्कि लगभग सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले से लिखा जा रहा है। आदिवासी चिंतन का मुख्य पहलू प्रकृति की रक्षा और जीव-जगत के अस्तित्व से संबंधित है। अपनी तीव्र इच्छापूर्ति के कारण मनुष्य ने प्रकृति का अत्यधिक दोहन किया। आदिवासी क्षेत्रों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई जिससे आदिवासी बड़ी मात्रा में विस्थापन के शिकार हुए और उनके साथ रहने वाले पशु-पक्षी, पेड़-पौधे भी उजाड़े गए। वस्तुतः आदिवासी समाज एक ऐसा समाज है जो मात्र मनुष्य समुदाय के बारे में नहीं सोचता है, बल्कि उसके चिंतन में समस्त प्राणी-जगत (जड़-चेतन) विद्यमान है और उन सबको साथ लेकर चलता है। आदिवासी समुदाय सामुदायिकता, समानता, सहभागिता, सहजीविता और सहअस्तित्व पर मजबूती से विश्वास करता है और ये पाँच तत्व उनके लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधारिक स्तम्भ हैं। उनकी स्वतंत्र और स्वशासी लोकतंत्र महज एक व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक संस्कृति है। लोकतंत्र की यह संस्कृति भारत के अतिरिक्त विश्व के समस्त आदिवासी समुदायों में देखा जा सकता है जिसकी रक्षा के लिए वे सदियों से संघर्ष कर रहे हैं। यह समस्त संसार प्रकृति द्वारा निर्मित है। प्रकृति के साथ रहकर आदिवासियों ने अनुभव किया कि प्रकृति मनुष्य के बिना जीवित रह सकती है, लेकिन मनुष्य प्रकृति के बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता है। यही कारण है कि आदिवासी जल, जंगल, जमीन से अपना अटूट संबंध मानते हैं और मात्र संबंध नहीं, बल्कि अपना अधिकार मानते हैं। वे आत्मनिर्णय के अधिकारों का दावा करने और अपनी भूमि, संस्कृति तथा पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने का प्रयास करते हैं जो विश्व के समस्त प्राणी-जगत के लिए अत्यंत आवश्यक है। आदिवासी समुदायों के अधिकारों का सम्मान करना तथा पारंपरिक ज्ञान को केंद्र में रखकर प्रकृति और मनुष्य के बीच संतुलन बनाए रखना आदिवासी साहित्य का उद्देश्य है।
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    Samkaalin Hindi stri Kavita Chintan ke Vividh Aayaam Vishesh Sandarbh 1990 se 2018 tak
    Gangopadhyay, Anindya
    हिंदीकविताकीपरंपरामें‘स्त्री-कविता’पदबंधस्त्रीरचनाशीलताकेसांस्कृतिकउन्मेषकाप्रतीकहै।नौवेंदशककीआमूलवैश्विकपरिघटनाओंनेसाहित्य,समाजतथाजनमानसकीचित्तवृत्तिकोअप्रत्याशितरूपसेप्रभावितकिया।अनामिका,कात्यायनी,गगनगिल,सवितासिंह,शुभा,अनीतावर्मा,रंजनाजायसवाल,नीलेशरघुवंशी,रजनीतिलक,सुशीलाटाकभौरे,निर्मलापुतुलआदिदर्जनोंकवयित्रियोंनेअपनीकविताओंकेजरियेलोकमेंबसेस्त्री-मनकोव्यापकसंदर्भोंसेजोड़ा।पितृसत्तात्मकसंबंधोंसेअलगउसेएकविश्वनागरिकऔरमनुष्यरूपमेंप्रतिष्ठितकिया।स्थानीयऔरविश्वायनकामिश्रितस्वरस्त्री-कवियोंकोएकऐसेमनुष्यकीनिर्मितिकीओरउन्मुखकियाजोविश्वकीविविधताओंकोआत्मसातकरसके।सत्ताकेउन्मादीवएकपक्षीयस्वरूपकोचुनौतीदेतेहुएवहनयेमानव-संबंधकोस्थापितकरतीदिखतीहैं।समकालीनहिंदीकविताकीएकधाराइसप्रगतिशीलस्वरकेसाथआगेबढ़रहीहै। भाषाकीचमक-दमकसेदूरसंवेदनकीतंतुओंकोपकड़ेकात्यायनी,अनामिका,सवितासिंह,गगनगिलआदिकवयित्रियोंनेमानव-सभ्यताकेइतिहासकोस्त्री-दृष्टिसेउलट-पुलटकरदेखाहै।जीवनकेसारऔरसौन्दर्यकोहरहालमेंबचालेनेकीजिजीविषावृत्तिकोपालेदेशकीआमजनताकेउद्गारकोअनीतावर्मा,रंजनाजायसवाल,नीलेश,निर्मलापुतुलआदिकवयित्रियोंनेएकपहचानदीहै।स्त्री-कवितानसिर्फअपनेवर्तमानकेप्रतिसजगहैबल्किस्त्री-अस्मिताकेऐतिहासिकपहलुओंकेप्रतिभीचेतनशीलदिखतीहै।भाषावबोलीकीनवीनभंगिमावअर्थ-संप्रेषणस्त्री-कविताकेसृजनात्मकसंसारकोनवोन्मेषीवृत्तियोंसेजोड़ताहै।स्त्री-भाषाउसीनवोन्मेषीवृत्तिकाप्रतिफलहै।स्त्री-जीवनकेसाथसांसारिकजीवनकेगूढ़रहस्यस्त्री-भाषामेंढलकरसहज-सुगमहोजाताहै।हिंदीकविताकीपरंपरामेंस्त्री-कविताकायहस्वरअपनेसमकालकोसमझनेकीकुंजीहै।
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    Hindi Patrakarita Aur Vishal Bharat
    Choubay, Rishi Bhushan
    भारतीय साहित्य, समाज, संस्कृति को पूरी संपूर्णता में व्यक्त करने तथा ‘मिशन पत्रकारिता’ के स्वरूप में समर्थ हस्तक्षेप रखने वाली महत्त्वपूर्ण पत्रिका ‘विशाल भारत’ अपने तत्कालीन परिवेश की पथ-प्रदर्शक रही है । साहित्य को प्रेमचंद जी ने कहा है कि वह ‘देशभक्ति और राजनीति के आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है’ तो इस कथन को पूरी तरह चरितार्थ करता है ‘विशाल भारत’ । ‘विशाल भारत’ अपनी संपादकीय नीति के द्वारा तथा विभिन्न साहित्यिक विधाओं की अभिव्यक्ति के माध्यम से भारत की सामासिक संकृति को तथा उसके वैश्विक चिंतन को प्रकट करता है । ‘विशाल भारत’ अपने नाम के बंधन में स्वयं को समेटता नहीं हैं बल्कि समग्र भारत के लिए जो हितकर हैं, वैसे पाश्चात्य विचारकों और साहित्यकारों के साहित्य एवं विचारों का प्रकाशन भी करता है । ‘विशाल भारत’ की संपादकीय नीतियाँ यह प्रमाणित करती हैं कि साहित्यकार भविष्यद्रष्टा होता है; हिंदी साहित्य में आज भी प्रवासी साहित्य और अस्मिता मूलक साहित्य सहजता से मुख्य धारा में सम्मिलित नहीं हो सकी है, विद्वान साहित्यकार उसके महत्त्व को वर्तमान समय में स्थापित करने में सफल हो पा रहे हैं, परंतु ‘विशाल भारत’ ने स्वतंत्रता-पूर्व ही इसपर गंभीर लेखन का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया था । ‘विशाल भारत’ भारतीय जनमानस के लिए उपयुक्त नैतिक विचारों के प्रति सदैव कर्तव्यपरायण रहा । नागरिक हितों की रक्षा के लिए कभी भी किसी एक राजनीतिक विचार की पक्षधरता को पत्रिका के संपादकीय नीति या साहित्यिक लेखों में अनाधिकार प्रवेश नहीं करने दिया । ‘विशाल भारत’ ने अपने समय की समस्त धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व साहित्यिक गतिविधियों पर विपुल सामग्री का प्रकाशन किया तथा स्वतंत्रता संघर्ष एवं संस्कृति-निर्माण में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । ‘विशाल भारत’ के तीनों संपादकों ने आधुनिक हिंदी साहित्य-समाज और संस्कृति को प्रभावित-पुष्पित एवं पल्लवित किया । ‘विशाल भारत’ ने स्थापित लेखकों एवं नवीन लेखकों को प्रकाशित करते हुए हिंदी साहित्य के लिए ठोस जमीन का निर्माण किया । ‘अश्लील साहित्य’ के विरोध के लिए रवीन्द्रनाथ ठाकुर व गाँधी से लेख भी लिखवाये। भारत तथा यूरोपीय देशों के बीच सांस्कृतिक सेतु स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई थी। हिंदी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता और देशवासियों में राष्ट्रीयता की भावना को मज़बूत करने में इस पत्रिका का कोई जोड़ नहीं रहा है। गाँव, गरीब व गाँधी की अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए जनता को ‘स्वराज’ के लिए जाग्रत करने के महत् उद्देश्य का पालन भी ‘विशाल भारत’ ने किया ।
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    Hindi ki Streeaatmakathayen Asmita Vimarsh
    Choubay, Rishi Bhushan
    शोध प्रबंध “हिन्दी की स्त्री आत्मकथाएँ : अस्मिता विमर्श” विषय पर तैयार किया गया है। इसमें अस्मिता विमर्श की दृष्टि से मन्नू भण्डारी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, रमणिका गुप्ता, अमृता प्रीतम, कौशल्या बैसंत्री, सुशीला टाकभौरें, बेबी कांबले तथा उर्मिला पवार की आत्मकथाओं को केंद्र में रखकर, अस्मिता विमर्श के विभिन्न पक्षों पर शोधपरक अध्ययन-विश्लेषण किया गया है। विमर्श के विभिन्न पक्षों को नवीन दृष्टि से देखते हुए, चयनित स्त्री आत्मकथाओं को दलित एवं गैर-दलित लेखिकाओं की कोटि में रखकर इनके बीच समानता और अंतर के बिंदुओं को रेखांकित करने की कोशिश हुई है। “हिन्दी की स्त्री आत्मकथाएँ : अस्मिता विमर्श” शीर्षक शोध में चयनित स्त्री आत्मकथाओं के गहन अध्ययन एवं विश्लेषण से कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष सामने आए हैं। इनमें मुख्य हैं – क) आत्मकथा विधा के रूप में समकालीन स्त्री जीवन और स्त्री अभिव्यक्ति को समझने के लिहाज़ से सर्वाधिक उपर्युक्त विधा है। ख) अस्मिता विमर्श से जुड़ी चिंताओं व मुद्दों को संदर्भित स्त्री आत्मकथाकारों ने अपने कड़वे व तीखे अनुभवों के साथ सधी भाषा-शैली में अभिव्यक्त किया है। ग) दलित और गैरदलित कोटियों में विभाजित करके देखने से स्पष्ट हुआ है कि दोनों वर्गों की स्त्रियाँ कुछ संदर्भों में समान रूप से वंचना, अपमान व शोषण की शिकार हुई हैं तो कुछ संदर्भों में शोषण व पीड़ा जातिगत भिन्नताओं की वजह से अलग क़िस्म की रही है। घ) संपूर्णता में स्त्री स्वाधीनता के प्रश्न पहले की अपेक्षा अधिक मुखरता और स्पष्टता के साथ लेखन में दर्ज़ हुए हैं। च) स्त्री जीवन के सपने व उनके संघर्ष पुरुष जीवन के सपनों और संघर्षों से अलग होते हुए भी मनुष्य के धरातल पर साझा हो जाते हैं। अंत में यह बताने की कोशिश की गई है कि बदलते समय के साथ स्त्री केवल किसी की माँ, पत्नी, और बेटी बनकर नहीं रहना चाहती बल्कि अपनी अलग पहचान भी चाहती हैं। स्त्री लेखिकाएँ यह भी बताना चाहती हैं कि केवल आर्थिक रूप से मुक्त होने पर ही स्त्री मुक्त नहीं होंगी बल्कि इसके लिए वैचारिक स्तर पर भी सचेत होना आवश्यक है। प्रस्तुत शोध रुढ़िगत विचारों को छोड़कर स्त्रियों के महत्त्व को स्वीकार करने हेतु अपील करती है।
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    Hindi ke aarambhik upanyason ka aalochnatmak adhyayan
    Pandey, Ved Raman
    हिंदीकेआरंभिकउपन्यासोंकाआलोचनात्मकअध्ययन' शीर्षकइसशोधमेंउनबिंदुओंकोरेखांकितकियागयाहैजिससेमनुष्य, समाजऔरराष्ट्रनिर्मितहोताहै।इनबिंदुओंकोतथ्यात्मकरूपदेनेकेलिएऔपन्यासिकटिप्पणी,दार्शनिक,समाजशास्त्रीयएवंआलोचकोंकेमतोंकोरखागयाहै। उपन्यासएकविधागतरूपहै।इसविधागतरूपमेंएकव्यक्तिकेस्थानपरएकनिर्मितहोतामनुष्यहै।यहमनुष्यहमारेप्राचीनआख्यानोंकेआदर्शरहेहैं।शोधमेंइसेचिन्हितकियागयाहैकिभलेहीविधागतनवीनताहोपरआदर्शखोनेनपाएहैं।इसशोधकीयहखासियतरहीहैकिइसआदर्शस्वरूपमनुष्यकोपूरेभारतीयऔपन्यासिकपरिप्रेक्ष्यमेंसमझागयाहै। औपन्यासिकआदर्शरूपकेसाथ-साथसृजनात्मकतौरपरस्वतंत्रताकोचिन्हितकियागयाहै।एकऔरहमारीभारतीयपरंपराकेरूपमेंकादंबरी, 'हर्षचरितदशकुमारचरित', 'बृहत्कथा', 'कथासरित्सागर, 'वासवदत्ता' थीतोदूसरीओरअंग्रेजीकेयथार्थवादीऔपन्यासिकपरंपराएंथीं।हिंदीकेआरंभिकउपन्यासलेखकोंनेइनसेकुछग्रहणकियाऔरकुछनएप्रयोगकिए।वहींकुछऐसेउपन्यासलेखकहुएजिन्होंनेठेठभारतीयढंगपरनएयथार्थगढ़े।इसविधागतनएप्रयोगकोआरंभिकउपन्यासोंसेशुरूकरवर्तमानसमयकेनएप्रयोगोंकेसाथजोड़करदेखागयाहै। भाषाएवंशिल्पकोउसकेजातीयस्वरूपसेजोड़नेवालेबिंदुओंकोभीरेखांकितकियागयाहै।उपन्यासपहलीबारभाषाएवंशिल्पकेमाध्यमसेराष्ट्रकोगढ़रहाथा।इसराष्ट्रीयअभिव्यंजनाकीएकताकीबातकीजाएतोयहांउर्दू, अवधी, ब्रज, भोजपुरी, संस्कृत, पंजाबीकोअभिव्यंजनामिलीहै।उपन्यासकेजरिएलेखकएकसांस्कृतिकविरासतगढ़रहेथेइसीलिएअंग्रेजीकोभीशामिलकियागयाहै।
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    Bhakti aur Riti Kavya Dharaon Ka Samvad aur Dadupanthi Sundardas ki Kavita
    Majumder, Tanuja
    यहशोधप्रबंधहिंदीसाहित्यकेइतिहासग्रंथोंमेंएकदूसरेकीकमोवेशविपरीतसमझीगईकाव्यधाराओं,भक्तिऔररीति, मेंपरस्परसंवाददर्शाताहै।मुगलसाम्राज्यकेअधीनराजपूतदरबारोंनेनकेवलरीतिकवियोंकोसंरक्षणदियाबल्किभक्तिकेप्रधानकेन्द्रोंजैसेवृन्दावन, गलता, नाथद्वाराआदिकोभीसहयोगदियाऔरऐसाराजनीतिकपरिवेशनिर्मितकियाजिसमेंभक्तिकेसाथ-साथरीति, नीतिऔरवीरतापरआधारितसाहित्यलिखागया।दादकेशिष्यसुन्दरदास (1596-1689) केव्यक्तित्वऔररचनाक्रमकासमग्रतामेंअध्ययनकरतेहुएयहशोधप्रबंधदिखाताहैकिसतकविभीधर्मशास्त्रजैसेअद्वैतवेदांत, सांख्यऔरयोगतथाकाव्यशास्त्रकेविषयोंजैसेछंद, अलंकारआदिपरसंतोंकीसंवेदनाकेअनुकूलकाव्यलिखतेथेऔरसमकालीनराजनीतिकपरिवेशकेप्रतिभीसचेतथे।सुन्दरदासनेरीतिकवियोंद्वारास्थापितप्रतिमानोंजैसेकाव्यकीआत्माक्याहै? काव्यलक्षणक्याहैं? औरकाव्यकिनविषयोंपरलिखाजानाचाहिये? आदिपरविमर्शकियाऔरभक्तिकाव्यकेलिएनयेप्रतिमानभीस्थापितकिये।सुन्दरदाससंस्कृततकसीमितशास्त्रीयज्ञानकोअपनीसरलसहजब्रजकविताद्वाराआमजनकेलिएसुलभबनातेहैं।सुन्दरदासनेकवि-शिक्षाकेलिएरीतिग्रंथोंकीशैलीपरअपनाज्ञानसमुद्रग्रन्थलिखाजिसेविद्वानोंने'ज्ञानधाराकारीतिग्रन्थ' कहाहै।सुन्दरदासकेदोग्रन्थ 'ज्ञानसमुद्र' और 'सुन्दरविलासगुजरातके. भुजशहरमें 1749 ई०मेंस्थापितब्रजभाषापाठशाला' मेंपढ़ायेजातेथे।इसपाठशालामेंअनेकप्रसिद्धकविऔरसंतनिर्मितहुए।सुन्दरदासकेकाव्यकीपांडुलिपियोंयहदिखातीहैंकिसंतसमुदायकेअलावादरबारीवर्गभीसुंदरदासकीकवितामेंगहरीदिलचस्पीलेताथा।येतथ्यसुन्दरदासकेकाव्यकीविस्तृतस्वीकृतिकोदिखातेहैंऔरउन्हेंसंतपरंपरामेंअलगस्थानदिलवातेहैं।सुन्दरदासएकतरहसेसंतोंकीसंवेदनाऔररीतिकवियोंकेसरोकारोंकाएकसाथनिर्वहनकरतेहैं,जिनकाअध्ययनकरकेहीसुन्दरदासकेकाव्य, उनकेयुगतथातत्कालीनसाहित्यिकपरिवेशकोबेहतरढंगसेसमझाजासकताहै।